आज
के समय में एक ओर हम देश को नए आयामों की ओर ले जा रहे हैं,अनवरत प्रगति को अपना
लक्ष्य मान रहे हैवहीँ दूसरी ओर,अपने स्वार्थ को भी सर्वोपरि रखे हुए हैं.ऐसे
हालात में हम एक विकसित देश की कल्पना कैसे कर सकते है.हम अपने देश में नारी और
पुरुष को एक समान महत्व देने का दावा करते है,इस कथन में वास्तविकता कितनी है
क्या हमने इस बारे में कभी विचार किया है?शायद नहीं,अगर मैं कहूँ कि
आज के दौर में इसकी आवश्यकता है, तो शायद आप सोचेंगे यह
मैंने क्या कहा और क्यों कहा,तो अब में बताती हूँ कि
मैंने क्यों कहा, आज हम अगर अपने आस पास नज़र दौडाएं तो
पाते है, कि भले ही नारी ने सारे क्षेत्रों में पुरुषों के
साथ कंधे से कन्धा मिलाकर अपना योगदान दिया हो, परन्तु आज भी
समाज के दोहरे मापदंडों के बीच नारी ही पिस रही है.आज हम उस से हमारी हमकदम बनने
के लिए जोर देते है.पर क्या उसी नारी के जन्म पर अर्थात् घर में बेटी के जन्म पर उत्सव
मनाते है, नहीं बल्कि उस बेटी को जन्म देने वाली माँ का जीवन
भी नरक बना देते है,उसे बिना किसी जुर्म के काला पानी जैसी
सजा मुकर्रर कर देते है.जिसकी कोई समय सीमा भी नहीं होती, शायद
आजीवन,उसे ताने,कड़वे शब्द और हमेशा पूरे
परिवार की दुर्भावना का शिकार बनाते है,बार बार उसे यह एहसास
करते है कि उस माँ ने लड़की को जन्म देकर अपने लिए काटों का ताज तैयार कर लिया है,जो शायद लड़के के जन्म के बाद ही फूलों की सेज बन सकता है,हम क्या कभी यह नहीं सोचते कि हम ऐसा कर के अपने ही रिश्तों में विष घोलते
है,सोचिये अगर हमारी मां और पत्नी के माता पिता ने भी हमारे जैसी सोच रखी होती तो हमारे समाज की तस्वीर क्या
होती, तो हमारा समाज नारी विहीन हो जाता.क्या नारी के बिना
समाज या विकसित देश की कल्पना कर सकते है? शायद नहीं पर आज
जो हमारी सोच है,वो दिन दूर नहीं जब हमारे सामने यह भयावह
सच्चाई आएगी,आज हमारे देश के कई राज्यों में लड़की का जन्म
अभिशाप माना जाता है.वैसे ऐसा भी नहीं कि सरकार ने इस भेदभाव को दूर करने के लिए
कोई प्रयास नहीं किए पर वो पूरे प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा के समान है
मसलन लाड़ली लक्ष्मी योजना और हाल ही में शुरू की गयी ‘बेटी बचाओ-बेटी पढाओ’ जसी
योजनाओं ने जागरूकता तो बधाई है लेकिन ,वास्तव में देश में
कन्या भ्रूण हत्या का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है,जो चिंताजनक
है,आखिर क्यों हम सोच में बदलाव नहीं करते कि लड़का या लड़की
में कोई अंतर नहीं, दोनों हर स्तर पर एक समान है. इस बारे
में बदलाव की शुरुआत पुरुष और खासतौर पर पिता से होनी चाहिए क्योंकि यदि पिता ठान
ले तो फिर बेटी का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता.पिता को लेकर एक बेटी के मन में
उपजी पीड़ा को किसी अज्ञात कवि ने कुछ इसतरह से शब्दों में पिरोया है:
“शाम
हो गयी अभी तो घूमने चलो पापा,
चलते चलते थक गयी कंधे पे बिठालो ना पापा,
अँधेरे से डर लगता सीने से लगा लो
ना पापा,
माँ तो सो गयी आप ही थपकी दे कर
सुलाओ ना पापा,
स्कूल
पूरा हो गया तो अब कालेज जाने दो ना पापा,
पाल
पोस कर बड़ा किया अब जुदा मत करो ना पापा,
अब
डोली में बिठा दिया तो आंसू तो मत बहाओ ना पापा,
आपकी
मुस्कराहट अच्छी है एक बार मुस्कुराओ ना पापा,
आप
ने मेरी हर बात मानी एक बात और मान जाओ ना पापा,
इस
धरती पर बोझ नहीं मैं दुनिया को समझाओ ना पापा.....I