Thursday, August 6, 2015

महज ढकोसला है बिना पुरुष अहम त्यागे समाज में बदलाव की बात करना !!

समाज और मीडिया में इन दिनों समाज के सभी तबकों एवं खासकर महिलाओं को समान अधिकार देने को लेकर बढ़-चढ़कर बातें पढने और सुनने को मिल रही हैं. कई बार तो ऐसा लगने लगता है मानों पूरा समाज एकाएक सुधारक में तब्दील हो गया हो लेकिन क्या मीडिया की खबरों से महिलाओं को न्याय मिल सकता है या एकाध किस्से से कोई बदलाव आ सकता है. न्याय का अर्थ है समाज में सभी के साथ समानता और समता का व्यवहार, सभी को उनके वांछित अधिकार प्रदान करना और किसी के साथ अन्याय नहीं होने देना. लेकिन विचार करने वाली बात यह है कि क्या बात हम पर,हमारे समाज पर और हमारे देश के सन्दर्भ में भी सटीक बैठती है? क्या हम अपने देश,समाज और यहाँ तक की घर में सभी के साथ समता और समानता का व्यवहार करते हैं? यदि ऐसा है तो फिर बाल मजदूरी, बड़ी संख्या में लोगों का अनपढ़ होना और अमीरी-गरीबी के बीच इतना अंतर क्यों है?
सबसे बड़ी बात तो यह है कि क्या हम अपनी आधी आबादी यानि महिलाओं को भी समाज में समानता का दर्जा दे पाए हैं? महिलाओं को काली,सरस्वती और लक्ष्मी बनाकर पूजना अलग बात है और वास्तविक जीवन में समानता का व्यवहार अलग. इससे समाज की कथनी और करनी में अंतर का पता भी चलता है क्योंकि यदि हमारी सोच और व्यवहार में समानता आ जाए तो सभी को न्याय का सपना साकार होने में देर नहीं लगेगी.
हमारे प्रधानमंत्री ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ और ‘सेल्फी विथ डाटर’ जैसे तमाम प्रयासों के जरिये इसी सामाजिक समानता की बात तो कर रहे हैं पर हम उनके कहने पर सेल्फी पोस्ट करने में तो देर नहीं करते परन्तु जैसे ही बेटी-बेटे की बारी आती है तो बेटियों के साथ भेदभाव करने में भी देर नहीं करते. आखिर बलात्कार, छेड़छाड़, कन्या भ्रूण हत्या या कोख में ही लड़कियों को मार देना, दहेज़ के नाम पर जलाना और अच्छी शिक्षा से वंचित रखकर लड़कियों को चूल्हे-चौके में झोंक देना अन्याय नहीं तो क्या है.

ऐसा नहीं है कि समाज को इस अन्याय और समानता का खामियाजा नहीं भुगतना पड़ रहा है लड़कियों की घटती संख्या के कारण हरियाणा में कई लडकों की शादी नहीं हो पा रही है और कई के लिए तो केरल जैसे राज्यों से दुल्हन लानी पड़ रही हैं वरना वंश कैसे चलेगा. आश्चर्य की बात तो यह है कि हमें माँ,पत्नी और बहन तो चाहिए परन्तु बेटी नहीं चाहिए. सोचिए, अब यदि बेटी ही नहीं होगी तो फिर हमें भविष्य में माँ ,बहन या पत्नी कैसे नसीब होगी? मेरे कहने का आशय यह है कि  जब तक हम अपने कार्य-व्यवहार में भी इन बातों को नहीं अपना लेते तब तक समाज से असमानता और अन्याय  ख़त्म नहीं हो सकता. जिसका परिणाम भी हमारे सामने आता जा रहा है इसलिए अभी वक्त है सँभालने का,सुधारने का और पहले से चली आ रही गलतियों को ठीक करने का..वरना ज्यादा देर हो गयी तो हम सुधार का मौका भी गँवा देंगे.हम एक ओर बेटी को देवी का स्वरुप मानते है,दूसरी ओर उसे हर कदम पर सिवाय उपेक्षा के कुछ नहीं देते,आज के समाज में बराबरी के दर्जे की बात होती है.पर वाकई इसे अपनाने के लिए क्या हम अपना मन बना पाए है,शायद नहीं वो भी इसलिए क्योंकि सदियों से चले आ रहे पुरुषप्रधान समाज में पुरुष के अहम के आगे सब धूमिल हो रहा है पर क्या हमारा समाज पुरुष अहम् को छोड़ने को तैयार होगा?जब तक पुरुषों की मानसिकता में बदलाव नहीं आता तब तक बेटियों और महिलाओं को न्याय और समानता दिलाने की बात मीडिया और कागज़ों पर ही सिमट कर रह जाएगी.  

Thursday, April 2, 2015

प्रधानमंत्री जी ,गाँधी-नेहरु जयंती पर सरकारी छुट्टी क्यों..?

माननीय प्रधानमंत्री जी ,
सादर नमन,
आपके रेडियो कार्यक्रम “मन की बात” के लिए मेरे दो सुझाव हैं. उम्मीद है कि आप इन पर ध्यान देने का वक्त निकल पाएंगे. सुझाव थोड़े लेखनुमा हो गए हैं लेकिन सुझावों को उनकी पृष्ठभूमि में समझना जरुरी था इसलिए इतना लिखना पड़ा.
1. गांधी जयंती पर सरकारी छुट्टी क्यों होनी चाहिए? और गाँधी जयंती ही क्यों अंबेडकर जयंती, बाल दिवस, गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस जैसे राष्ट्रीय दिवसों पर भी सरकारी छुट्टी क्यों? ये कोई धार्मिक त्यौहार तो हैं नहीं कि हमें अपने परिवार के साथ मिल जुलकर घर में पूजा पाठ करना है. ये तो राष्ट्रीय पर्व हैं जिन्हें हमें पूरे देश के साथ मिलकर मनाना चाहिए. राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी सदैव समय को बहुमूल्य मानते थे और समय की फिजूलखर्ची के सख्त खिलाफ़ थे. ऐसे में उनके जन्मदिवस पर सरकारी छुट्टी घोषित कर क्या हम उनका अपमान और उनके सिद्धांतों की अवमानना नहीं कर रहे? हाल ही में गोवा सरकार ने गाँधी जयंती पर अवकाश समाप्त करने का हौंसला दिखाया था. इसके पीछे उनकी मंशा जो भी रही हो लेकिन मैं इसे एक अच्छी पहल मानती हूँ. यह बात अलग है कि मौजूदा दौर में देश में समझदारी के स्थान पर भावनाओं की राजनीति हो रही है और इसलिए यह अच्छी शुरुआत भी विवादित होकर असमय दम तोड़ गयी.
होना यह चाहिए कि इन राष्ट्रीय महत्व के दिनों पर रोज की तुलना में ज्यादा काम हो ताकि हम बापू,पंडित नेहरु और अम्बेडकर जैसे महापुरुषों को सही अर्थों में आदर दे सकें. अभी तक होता क्या है सरकारी कर्मी इन छुट्टियों के साथ शनिवार-रविवार जैसी छुट्टियां जोड़कर कहीं घूमने की योजना बना लेते हैं और कोई इन महान देश सेवकों को, उनके बलिदान, उनके कामों, शिक्षाओं और सिद्धांतों को पल भर के लिए भी याद नहीं करता. इसलिए इस अवसर पर होने वाले सरकारी कार्यक्रम भी महज रस्म अदायगी बनकर रह जाते हैं.
मुझे पता है कि सरकारी छुट्टियों को ख़त्म करने का काम इतना आसन नहीं है. इसलिए आरंभिक तौर पर यह किया जा सकता है कि इन सभी राष्ट्रीय पर्वों पर सरकारी कार्यालयों में अवकाश के दिन सामान्य कामकाज के स्थान पर रचनात्मक काम किया जाए मसलन गाँधी जयंती पर सभी सरकारी दफ्तरों में साफ़-सफाई हो तो नेहरु जयंती पर सभी लोग अनाथालयों, बाल कल्याण आश्रमों, झुग्गी बस्तियों में जाकर सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक सुविधाओं से वंचित बच्चों से मिले और उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास करें. इसीतरह अम्बेडकर जयंती पर सभी को संविधान की शिक्षा दी जा सकती है क्योंकि मुझे नहीं लगता अधिकतर सरकारी कर्मचारियों को भी आज ढंग से संविधान प्रदत्त अपने मौलिक अधिकारों और बतौर नागरिक देश के प्रति कर्तव्यों का ज्ञान होगा. छुट्टी के स्थान पर महापुरुषों पर केन्द्रित विशेष व्याख्यान जैसे तमाम आयोजन किये जा सकते हैं. कम से कम इसी बहाने लोग छुट्टी के दिन घर में बैठकर चाय-पकोड़े खाने के स्थान पर इन राष्ट्रीय पर्वों और हमारे महान नायकों का महत्व तो समझ सकेंगे.
2. मेरा दूसरा सुझाव यह है कि शनिवार-रविवार को तमाम सरकारी संस्थानों में अवकाश की वर्तमान व्यवस्था को भी परिवर्तित किया जाना चाहिए. किसी भी विकासशील देश के लिए क्या यह न्यायोचित है कि हर सप्ताह पूरे दो दिन सभी सरकारी दफ्तर एक साथ बंद रहें. कई बार अन्य छुट्टियां जुड़ने से दफ्तर बंद रहने का यह सिलसिला दो दिन से बढ़कर हफ्ते भर तक खिंच जाता है. मसलन हाल ही में, अप्रैल के पहले सप्ताह में पूरे हफ्ते भर तक सभी सरकारी दफ्तरों, बैंकों और अन्य संस्थानों में ताले लटके रहे. अब सोचिए, एक ओर तो हम नया वित्त वर्ष शुरू कर रहे हैं, वहीँ दूसरी ओर शुरुआत ही हफ्ते भर की छुट्टी से कर रहे हैं. हफ्ते भर दफ्तर बंद रहने से देश की उत्पादकता, वित्तीय लेनदेन,निवेश,व्यापार और इनसे जुड़े फैसले लेने जैसे तमाम कामों पर कितना असर हुआ? और इससे भी ज्यादा विदेशी निवेशकों/कारोबारियों के सामने हमारे देश की छवि क्या बनती है? इन सवालों पर विचार जरुरी है.
मैं, सरकारी दफ्तरों में छुट्टी के खिलाफ नहीं हूँ. मेरे पति भी सरकार कर्मचारी हैं. मेरा सुझाव यह है कि पांच दिन वर्किंग डे और दो दिन का साप्ताहिक अवकाश तो जारी रहे लेकिन इसे किन्ही दो दिनों पर केन्द्रित न कर सभी दिनों में बाँट दिया जाए जैसे कुछ लोग सोमवार-मंगलवार को अवकाश पर रहे तो कुछ बुधवार-गुरूवार को और कुछ कर्मचारी और किसी दिन. इससे यह फायदा होगा कि सरकारी कार्यालय साल के पूरे 365 दिन खुले रहेंगे और कर्मचारियों को भी हर सप्ताह दो दिन का अवकाश मिलता रहेगा. इससे न तो देश के विकास का पहिया कभी थमेगा और न ही कभी सरकारी कार्यालयों में काम-काज रुकेगा. इससे साल के 52 सप्ताहों में हर शनिवार-रविवार को दफ्तर बंद रहने से जो 100 दिनों से ज्यादा के मानव श्रम का नुकसान होता है उसे हम बिना अतिरिक्त मेहनत के भी बचा पाएंगे. इसके अलावा, सरकारी कमर्चारियों के क्रमवार छुट्टी पर रहने से सार्वजानिक परिवहन सेवाओं जैसे मेट्रों, बसों, ट्रेनों में भीड़भाड़ कम होगी तो सड़कों पर भी ट्रेफिक का दबाव कम होगा और महानगरों में घंटों लगने वाले जाम से भी छुटकारा मिल जाएगा. ये तो महज सामने से  दिखाई पड़ रहे लाभ हैं परन्तु यदि गहराई से अनुसन्धान किया जाए तो और भी कई गंभीर फायदे नजर आ जायेंगे. तो सोचिए इस एक पहल से हमारे देश को कितना लाभ हो सकता है. बस पहल करने की जरुरत है और आपसे बेहतर यह काम और कौन कर सकता है.
आपने पढ़ने का वक्त निकाला.....धन्यवाद

-मनीषा शर्मा, गृहणी,सिलचर,असम    

Thursday, February 19, 2015

इस धरती पर बोझ नहीं मैं दुनिया को समझाओ ना पापा.....I


आज के समय में एक ओर हम देश को नए आयामों की ओर ले जा रहे हैं,अनवरत प्रगति को अपना लक्ष्य मान रहे हैवहीँ दूसरी ओर,अपने स्वार्थ को भी सर्वोपरि रखे हुए हैं.ऐसे हालात में हम एक विकसित देश की कल्पना कैसे कर सकते है.हम अपने देश में नारी और पुरुष को एक समान महत्व देने का दावा करते है,इस कथन में वास्तविकता कितनी है क्या हमने इस बारे में कभी विचार किया है?शायद नहीं,अगर मैं कहूँ  कि आज के दौर में इसकी आवश्यकता है, तो शायद आप सोचेंगे यह मैंने क्या कहा और क्यों कहा,तो अब में बताती हूँ कि  मैंने क्यों कहा, आज हम अगर अपने आस पास नज़र दौडाएं तो पाते है, कि भले ही नारी ने सारे क्षेत्रों में पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर अपना योगदान दिया हो, परन्तु आज भी समाज के दोहरे मापदंडों के बीच नारी ही पिस रही है.आज हम उस से हमारी हमकदम बनने के लिए जोर देते है.पर क्या उसी नारी के जन्म पर अर्थात् घर में बेटी के जन्म पर उत्सव मनाते है, नहीं बल्कि उस बेटी को जन्म देने वाली माँ का जीवन भी नरक बना देते है,उसे बिना किसी जुर्म के काला पानी जैसी सजा मुकर्रर कर देते है.जिसकी कोई समय सीमा भी नहीं होती, शायद आजीवन,उसे ताने,कड़वे शब्द और हमेशा पूरे परिवार की दुर्भावना का शिकार बनाते है,बार बार उसे यह एहसास करते है कि उस माँ ने लड़की को जन्म देकर अपने लिए काटों का ताज तैयार कर लिया है,जो शायद लड़के के जन्म के बाद ही फूलों की सेज बन सकता है,हम क्या कभी यह नहीं सोचते कि हम ऐसा कर के अपने ही रिश्तों में विष घोलते है,सोचिये अगर हमारी मां और पत्नी  के माता पिता ने भी हमारे जैसी सोच रखी होती तो हमारे समाज की तस्वीर क्या होती, तो हमारा समाज नारी विहीन हो जाता.क्या नारी के बिना समाज या विकसित देश की कल्पना कर सकते है? शायद नहीं पर आज जो हमारी सोच है,वो दिन दूर नहीं जब हमारे सामने यह भयावह सच्चाई आएगी,आज हमारे देश के कई राज्यों में लड़की का जन्म अभिशाप माना जाता है.वैसे ऐसा भी नहीं कि सरकार ने इस भेदभाव को दूर करने के लिए कोई प्रयास नहीं किए पर वो पूरे प्रयास ऊंट के मुंह  में जीरा के समान है मसलन लाड़ली लक्ष्मी योजना और हाल ही में शुरू की गयी ‘बेटी बचाओ-बेटी पढाओ’ जसी योजनाओं ने जागरूकता तो बधाई है लेकिन ,वास्तव में देश में कन्या भ्रूण हत्या का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है,जो चिंताजनक है,आखिर क्यों हम सोच में बदलाव नहीं करते कि लड़का या लड़की में कोई अंतर नहीं, दोनों हर स्तर पर एक समान है. इस बारे में बदलाव की शुरुआत पुरुष और खासतौर पर पिता से होनी चाहिए क्योंकि यदि पिता ठान ले तो फिर बेटी का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता.पिता को लेकर एक बेटी के मन में उपजी पीड़ा को किसी अज्ञात कवि ने कुछ इसतरह से शब्दों में पिरोया है:
“शाम हो गयी अभी तो घूमने चलो पापा,
 चलते चलते थक गयी कंधे पे बिठालो ना पापा,
 अँधेरे से डर लगता सीने से लगा लो ना पापा,
 माँ तो सो गयी आप ही थपकी दे कर सुलाओ ना पापा,
स्कूल पूरा हो गया तो अब कालेज जाने दो ना पापा,
पाल पोस कर बड़ा किया अब जुदा मत करो ना पापा,
अब डोली में बिठा दिया तो आंसू तो मत बहाओ ना पापा,
आपकी मुस्कराहट अच्छी है एक बार मुस्कुराओ ना पापा,
आप ने मेरी हर बात  मानी एक बात और मान जाओ ना पापा,
इस धरती पर बोझ नहीं मैं दुनिया को समझाओ ना पापा.....I


सुरंजनी पर आपकी राय