Thursday, October 20, 2011

सौंदर्य प्रसाधन या रंगभेद बढ़ाने के नए हथियार

 हमारे समाज में स्त्रियों को अपना सम्मान बनाये  रखने के लिए हमेशा ही अत्यधिक प्रयासरत रहना पड़ता है क्योंकि उन्हें इस के लिए अनेक मापदंडों की कसौटी पर परखा जाता है.आज समाज में भलेहि नारी को पुरुषों के बराबर हक़ मिलने की बात चल रही है लेकिन इसके बाद भी नारी को तो परीक्षा देना ही पड़ रहा है.इन मापदंडों में योग्यता के साथ कई और ऐसे बिंदु भी हैं जो किसी के भी व्यक्तित्व का मूल्यांकन कर उसके बारे में पुरुषों को राय बनाने का अवसर देते हैं.पर क्या इस मापदंड का आधार सुंदरता से जोड़ना सही है?  यह तो हम सभी जानते है कि सुंदरता का सम्बन्ध रंगरूप से भी है तभी तो   गोरे होने से मार्केट डिमांड से लेकर नौकरी मिलने में भी आसानी हो जाती है. तमाम देशी-विदेश कंपनियों ने विज्ञापन जगत कि मदद से गोरेपन की क्रीम और मोटापा कम करने की दवाइयों को लाकर महिलाओं को दिग्भ्रमित कर दिया है.फेयरनेस क्रीम के बाद अब बारी है गोरा करने वाले फेसवाश की, पिम्पल दूर करने क्रीम , पिगमेंट(दाग-धब्बे) हटानेवाली क्रीम की जो त्वचा के रंग को हल्का करने का दावा करती हैं.इन 'प्रोडक्ट' की दीवानगी इन दिनों सर चढ़कर बोल रही है.उत्पादक इन्हें बेचने के लिए अनोखे तरीके अपनाने में लगे है .अब इन में फेस पर ग्लो यानि चमकदार चेहरा भी जुड गया है.                     इन उत्पादों में हल्दी और केसर जैसे प्राकृतिक संसाधनों  के इस्तेमाल ने इनके प्रति लगाव बढ़ा दिया है क्योंकि यह तत्त्व प्राचीनकाल से ही रंगत बढ़ाने में मददगार रहे है.बहरहाल किसी की किस्मत का फैसला उसकी त्वचा के रंग के आधार पर होना जहाँ तक सही है? जिसका रंग सांवला है वो अच्छी नौकरी की हकदार नहीं है,यह कहाँ तक तर्कसंगत है. हम कुछ विज्ञापनों में देख रहे है कि फेयरनेस क्रीम लगाने के बाद ही दोस्त बनते है. हमारे देश में जाति-वर्ण भेद तो पहले से ही हैं अब रंगभेद को भी जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है.  समाज भले ही प्रगति कर रहा हो लेकिन इन वज़हों से अंतर भी आ रहा है. मैं यह मानती हूँ कि गोरे रंग का महत्त्व जितना है उतना ही महत्त्व सांवले रंग को दिया जाना चाहिए.हम क्यों सांवले रंग को अपमान या शर्मिंदगी से जोड़ कर देखते है हमें व्यक्ति का आंकलन उसकी बाहरी सुंदरता की बजाये आंतरिक सुंदरता और व्यक्तित्व की खूबियों से करना चाहिए.वैसे भी बाहरी सुंदरता को तो क्रीमों से बढ़ा सकते है पर  आंतरिक सुंदरता तो हर व्यक्ति को अपने परिश्रम से हासिल होती है इसलिए हमें गोरे या सांवले को आंकलन का तरीका न बनाकर पूर्ण रूप से पूरे व्यक्तित्व के आंकलन को सर्वोपरि मानना चाहिए.                                                                आज समाज को अपनी सोच को बदलने का समय है अगर हम गौर करें तो जो आकर्षण गोरे रंग में है उससे ज्यादा गरिमा सांवले रंग में होती है. इसे हम केवल दबी-कुचली जातियों  का रंग न मान कर एक मूल्यवान पारम्परिक विशिष्टता मानना चाहिए.हम सभी जानते हैं कि हमारे इष्ट देवों में अधिकतर सांवले रंग के देवता है जो हमारे लिए प्रेरणास्रोत है इसलिए सांवले रंग का होना भी उतना ही जरुरी है. जिस तरह जल और हवा हमारे जीवन के आवश्यक तत्व है.हर सिक्के के दो पहलु होते हैं और वैसे भी पार्वती जी को ताम्बई रंग का माना जाता है,सीताजी का जन्म प्रथ्वी से हुआ तो उनका रंग तो धरती जैसा ही था ,इस सत्यता को लोग भुला बैठे है और भेडचाल की तरह सफ़ेदी के पीछे भाग रहे हैं.आज जिन्हें खूबसूरत कहा जाता है वो फायदे उठाते है.जिन्हें नहीं कहा जाता वे हीन भावना से ग्रस्त हो जाते है.मेरा मानना है कि गोरी या काली त्वचा से कुछ नहीं होता.त्वचा चमकदार और हेल्दी होने पर कोई भी खूबसूरत दिख सकता है.इसके अलावा फेयरनेस प्रोडक्ट को अपनाने से पहले यह भी पता कर ले कि वे नुकसानदेह तो नहीं हैं क्योंकि कुछ प्रोडक्ट मेलानिन पिगमेंट के सिंथोसिस को ब्लाक कर देते है.हायड्रोकीनोन का लगातार प्रयोग हाइपो पिगमेंटेशन के अलावा त्वचा कैंसर का कारण भी बन सकता है. यह भी याद रखना चाहिए कि एक ही प्रोडक्ट हर त्वचा को सूट नहीं कर सकता.इस लिए हमें अपने रंगरूप से ज्यादा अपनी सोच,विचार,आदत,भावनाओं,ज्ञानवर्धन अपनापन,प्यार, आदर सम्मान को महत्व देना चाहिए क्योंकि यह रंगरूप तो चार दिन की चांदनी फिर अँधेरी रात इस कहावत को पूरा करता है जब तक यह है तब तक सब हमारे लिए सब अनुकूल है पर बाद में प्रतिकूल भी हो सकता है.इसलिए खुद पर आत्मविश्वास, आत्मनियंत्रण,आत्मआंकलन आत्मसम्मान के साथ अपने जीवन को प्रगति के पथ पर अग्रसर करना चाहिए क्या पता ईश्वर ने हमारे लिए कौन से अदभुत संसार को रचा रखा हो और गोरे होने के चक्कर में आप उससे वंचित रह जाये इस लिए खुद को अपने उसी संसार को पाने की ओर आगे बढ़ाये जो ईश्वर  ने रचा है....!                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       

Saturday, August 27, 2011

केवल कमाई नहीं सामाजिक सरोकारों की भी चिंता करे मीडिया

आज हमारे पत्रकारों ने मीडिया की तस्वीर बदल दी है.आज एक टीवी एंकर धारावाहिक के मुकाबले ज्यादा धयान आकर्षित कर रहा  है. ब्रेकिंग न्यूज़ का अर्थ बदल कर किसी की इज्ज़त उतर देना रह गया है.आज मीडिया की जिम्मेदारी भी सवालों के घेरे में है.मीडिया केवल वही समाचारों को प्रदर्शित करता है जो उसे टीआरपी रेटिंग में टॉप पर पहुंचा दे जबकि असलियत में मीडिया को केवल उन्ही समाचारों को प्रकाशित-प्रसारित करना चाहिए जो सभी के लिए उपयोगी और तर्कसंगत हो.हमें इस ओर भी धयान देना चाहिए कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अपनी जिम्मेदारी 'जवाबदेही' के साथ  निभाए लेकिन आज हमारे पास भी  इतना वक्त ही नहीं कि हम अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा कर सके.मीडिया ने इस संसार  को एक छोटा द्वीप बना दिया है इसका यह अर्थ है कि मीडिया जानकारी देने में सफल तो है पर शायद इसमें  कुछ क्षेत्रों की  जानकारी का अभाव है जो बाकी से ज्यादा महत्वपूर्ण है जैसे गांव में अभी भी आधारभूत सुविधाएँ नहीं है इन जानकारियों को क्यों हम महत्त्व नहीं देते.मीडिया किसी क्रिकेटर की  शादी को मुख्य समाचारों में जगह देगा लेकिन किसी किसान या बुनकर से जुड़े समाचार को वो तवज्जो नहीं  मिलेगी. अगर किसी नेता के चुनाव के प्रचार से जुडी खबर होगी तो उसके लिए मीडियाकर्मी सारे काम को दरकिनार करके उनके क्षेत्र का पूरा लेखा जोखा लेकर  उसपर एक कार्यक्रम तैयार करके विशेष के तौर पर पेश करते है                                                                                                                          .                                                                          हम सभी को मीडिया के नए स्वरुप पर आश्चर्य तो अवश्य होता  है पर देश के नागरिक होने के नाते मीडिया द्वारा दी जा रही ख़बरों के प्रति अपने विचारों से  सभी को अवगत कराने में हम लापरवाह हैं.आज मीडिया में बलात्कार, क़त्ल, हत्या,लूट मारपीट की ख़बरें ज्यादा आती है. मीडिया रक्षक से ज्यादा भक्षक बनने की ओर अग्रसर है.दरअसल मीडिया एक पैड सर्विस बनता जा रहा है.अगर कोई खबर मीडिया में आने से रोकनी हो तो उस के लिए कुछ जेब ढीली कीजिये और आपका काम हो गया जैसे बहुत  सारे उदाहरण है जैसे  अमर सिंह का स्टिंग ऑपरेशन,अनेक आईएएस अधिकारियों के घरों पर आयकर विभाग के छापों की खबर हो, चाहे नीरज ग्रोवर हत्याकांड हो, आरुषि हत्याकांड हो,चाहे आदर्श घोटाला हो,चारा घोटाला हो,२जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो,सीडब्लूजी घोटाला हो सभी में  मीडिया ने अपनी छवि को और धूमिल किया है और वह सच्चाई को सामने लाने में असफल रहा है. आज मीडिया  प्रभावशाली  लोगों की हाथों की कठपुतली की तरह हो गया है.वो नेताओं के बेटे और बेटियों के विवाह का बड़े स्तर  पर कवरेज करता है.फ़िल्मी सितारों की पर्सनल जानकारियां भी अपने समाचारों में शामिल करता है. जैसे ऐश्वर्या राय को बेटी होगी या बेटा- मीडिया के लिए यह टॉप मोस्ट खबर है वे यह नहीं सोचते की इस खबर से ज्यादा महत्वपूर्ण खबर जनसामान्य से जुडी कोई बात हो सकती है.अगर कोई नेता गिरफ्तार हो जाता है तो मीडिया उसके सोने जागने से जुडी सारी बातें ब्रेकिंग न्यूज़ में शामिल करता है जिनकी वास्तव में कोई जरुरत नहीं है.आज मीडिया में अनेक वार्ता या विचार विमर्श से जुड़े कार्यक्रम आते है जिनमे कुछ विशेष मेहमानों को ही  शामिल किया जाता है .ज्यादातर उन मेहमानों पर चीखता चिल्लाता एंकर कभी भी खोजी पत्रकारिता का विकल्प नहीं बन सकता. टीवी चैनल की रिपोर्टिंग टीम अख़बारों के मुकाबले छोटी होती है.ज्यादातर खबरिया चैनल घाटे में डूबे है.पेचीदा मामलों पर उनके पास विशेषज्ञ नहीं है.अगर मीडिया के तेवर  चढ़े हो  तो नेताओं की हालत पतली हो जाती है.जैसा की आजकल हो रहा है. मीडिया द्वारा अन्ना हजारे के अनशन को महत्व देने से सरकार को अपनी स्थिति बार-बार अच्छी बनाने की कोशिश करनी पड़ रही है.इस घटना से सबक लेते हुए  मीडिया को वास्तविक तौर पर अपनी जिम्मेदारी को  समझना होगा और उसे जन कल्याण से जुड़े उद्देश्यों के प्रति समर्पित रहना होगा वरना टीआरपी और कमाई की अंधी दौड़ उसे आम जनता के बीच कहीं का नहीं छोडेगी.दुनिया के सबसे बड़े मीडिया मुग़ल रूपर्ट मर्डोक का उदाहरण हमारे सामने है.                                                                                                          

Thursday, August 18, 2011

अन्ना ही क्यों आहुति तो हम सभी को देनी चाहिए

कुछ ही दिन बाद हम अपने देश के स्वाधीनता की ६६वी सालगिरह मनाने वाले है.क्या हम वाकई इस अवसर को मनाने के हकदार हैं?.यदि हाँ तो क्यों नहीं हमें सभी तरह की स्वतंत्रता प्राप्त है. हमें केवल कागजी तौर पर ही आज़ादी प्राप्त  है.हमें  अपने विचारों को व्यक्त करने से भी रोका जाता है. उन्हें दबाने के लिए साम,  दाम, दंड, भेद सभी उपायों को अपनाया जाता है. आम आदमी तो दूर हमारे प्रतिनिधियों तक को बख्शा नहीं जाता जैसा कि हमें जेपी से लेकर अन्ना हजारे तक कई बार देखने को मिल चुका है. ज्यादा पुरानी बात नही उसी तरह के उद्देश्य को लेकर अन्ना हजारे और उनकी टीम ने  एक बार फिर२५ जुलाई को भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए जन लोकपाल बिल को उसके उचित स्वरुप में लागू करवाने के लिए अनशन की घोषणा की है.
    .                                       हमारे लिए सोचने की बात यह है कि क्या इस देश का नागरिक होने के बाद भी अपने विचारों को आगे बढ़ाने की स्वतंत्रता नहीं.खैर अन्ना की इस  क्रांति का परिणाम जो भी हो इतना ज़रूर है कि दूसरी आज़ादी की लड़ाई के लिए एक बार फिर महात्मा गाँधी का प्रतिरूप हमारे साथ है जिसका लड़ने का तरीका भी अहिंसावादी है विचार/व्यवहार सभी गांधीवादी है तो फिर क्यों नहीं हम सभी भारतीयों को इस महात्मा की नई अगस्त क्रांति में अपने समर्थन की आहूति  देनी चाहिए.जन आंदोलनों तथा संसदीय प्रक्रियाओं के बीच एक सहयोग और टकराव के द्वन्द से लोकतंत्र और मज़बूत होगा.आपातकाल को याद रखना  भी ज़रुरी है.क्योंकि वो हमारे इतिहास का कटु अध्याय है इसलिए किसी भी सत्ता को आन्दोलनों का मुकाबला प्रशासनिक नहीं बल्कि राजनैतिक तरीके से करना चाहिए .अगर हम अपनी बात कहने के लिए शांतिपूर्ण तरीका अपनाते है तो वो लोकतंत्र को मजबूत करता है.हम पहले हुए आंदोलनों को देखें तो जेपी आन्दोलन के दूरगामी परिणामों ने लोकतंत्र को और परिपक्व बनाया.इस आन्दोलन में भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा था ,इस तरह के आंदोलनों से लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को खुद की कमी दूर करने का अवसर मिलता है.अन्ना ने सरकार को अपनी ही रणनीतियों पर बार बार विचार को मजबूर भी किया.अन्ना का चाहिए है कि सरकार को अन्ना के आन्दोलन को मिस्र या अन्य अरब देशों में बने बगावती हालात बनने के पहले शांत करवाना चाहिए. कहीं ऐसा न हो कि हुस्नी मुबारक जैसी स्थिति हमारे नेताओं की हो जाये. वैसे विश्वास में कमी,मानवीय मूल्यों में कमी,अपनेपन की कमी जैसी कमियों की भावना भ्रष्टाचार को जन्म देती है.स्वार्थ असुरक्षा की भावना भी एक अन्य कारण है.आज हमारा देश जनसँख्या में विश्व का छटवा देश है.भारत के नागरिकों को अपनी संस्कृति और आध्यात्मिकता पर गर्व होना चाहिए.प्रगति और खुशहाली का सही अर्थ हर ओर खुशी होता है.हम सभी को इस के लिए एक मजबूत और भ्रष्टाचार मुक्त,प्रगतिशील राष्ट्र बनाने में संलग्न हो जाना चाहिए.और प्रण करना चाहिए की न खुद भ्रष्ट बनेगे और ना ही देश को भ्रष्टाचार की गर्त में जाने देंगे चाहे इसके लिए एक जुट होकर संघर्ष क्यों ना करना पड़े.क्यों ना हमें अपना सर्वस्व न्योछावर करना पड़े हम इसे अपना कर्तव्य समझकर सदैव इस के लिए प्रयासरत रहेंगे..... !यह देखना दिलचस्प होगा की सरकार इस बार क्या कदम उठती है. इस आन्दोलन के बाद जिस से देश सच्चे अर्थों में भ्रष्टाचार मुक्त और प्रगतिशील बने ...........

Monday, August 8, 2011

बीमार होना है तो जमकर करो मोबाइल पर बात

आज के समय में मोबाइल हर युवा दिल की धडकन बन चुका है. तो दूसरी ओर प्रतिष्ठा का प्रतीक  भी है. आज करोड़ो   मोबाइल उपभोक्ता है.मोबाइल उनके जीवन शैली के साथ उनका सबसे विश्वसनीय मित्र साबित हो रहा है.वे हर वक्त इसके बिना अपने को अधूरा महसूस करते है.लेकिन अगर बात स्वास्थ्य से जुडी हो, तो विचार करने की ज़रूरत है.भूमंडलीकरण के इस दौर में दुनिया सिमटकर गाँव बन गयी है.इससे नयी तकनीक का तेज प्रसार होता है.जिस तरह मोबाइल का प्रसार हुआ,  उसमे समय पर चेतावनी मिलने की सम्भावना कम होती है.मोबाइल के प्रसार को प्रगति के प्रतीक के रूप में प्रचारित किया गया.जब किसी उत्पाद के साथ आर्थिक हित जुड़े हो तो उनके खतरों को छिपाने का प्रयास ज्यादा होता है.यह भी निश्चित है कि लोगों को मोबाइल से अनेक लाभ नज़र आये.भारत सहित पूरी दुनिया में २४ घंटे संपर्क को बनाये रखने में ग्लोबल सिस्टम फॉर मोबाइल कम्युनिकेशन सेवा(जीएसएम) प्रारंभ की गयी.जीएसएम ने पूरे भारत में दूर संचार क्रांति को पहुँचाने में मदद की.. मोबाइल के लंबे इस्तेमाल से १५% लोग मानसिक परेशानियों से जूझ रहे है.                                                       
भारत सरकार के संचार-सूचना तकनीक मंत्रालय ने मोबाइल से जुड़े खतरों के अध्यन के लिए एक अंतर मंत्रालय समिति का गठन किया है. जिसने अपनी रिपोर्ट में मोबाइल फोन और इनके टावर से निकलने वाले रेडियेशन से याददाशत कमजोर होना,पाचनतंत्र में गडबडी होना,अनिद्रा,थकान,सिरदर्द आदि खतरे जुड़े है.इससे ब्रेन केन्सर भी हो सकता है.बाद   में  थायरोइड केन्सर की सम्भावना है.ह्रदय की धमनियां खराब होने से अचानक मौत हो सकती है.श्वेत रक्त कणिकाओं में कमी से रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रभावित होती है.प्रजनन अंग क्षतिग्रस्त हो जाते है जिससे अस्थायी नपुंसकता आ जाती है.आज के युवा हर दिन अपनी रिंग टोने बदल देते है.इन टोन की मस्त धुन सुनते युवा अपने दिल को कमजोर बना रहेहै.आज मोबाइल की बैटरी फटने के भी कई उदाहरण हमारे सामने है.                                                                         
 इन खतरों को कम करने के लिए कुछ सावधानियां बरती जा सकती है.जब तक संभव हो लैंडलाइन फोन का इस्तेमाल करे,..लंबी बात मोबाइल पर न करें,कमजोर सिग्नल की स्थिति में मोबाइल के उपयोग से बचे,फोन को पास रखकर न सोये,इसे सिर और तकिये से दूर रखे,रात में इसे स्विच ऑफ कर देना चाहिए,बच्चोंको मोबाइल से दूर रखना बेहद ज़रुरी है. उपभोक्ता बेहतर गुणवत्ता वाला मोबाइल फोन खरीदकर अपने खतरे को कम कर सकते है. हैण्ड सेट को पहनकर बात करने की आदत डाले.मोबाइल खरीदते समय ध्यान रखें कि उसमे निम्न स्तर का एसएआर  हो.जो आपकी
शरीर पर रेडियो तरंगों का प्रभाव मापता है.संवाद के लिए जहाँ तक सम्भव हो एसएमएस का इस्तेमाल करें. जिस से हम अपनी इस आधुनिकतम खोज को वरदान के रूप में
अपना सकें और अपने देश कि प्रगति को नए आयामों कि ओर ले जा सकें..........!                                  

Monday, June 20, 2011

नारी अब तुम केवल 'विज्ञापन' हो

                                          आज हम विकसित समाज में रह रहें है.जहाँ हम अपनी परम्परा और आदर्शों को लेकर आगे बढ़ रहे है.आज हम अपनी जीवन  शैली को आज के अनुरूप ढालने का प्रयास कर रहे है.पर क्या इस प्रयास में हम अपनी पहचान तो नहीं खो रहे है. हम तो अपने बड़ों की बताई बातों  को सम्मान देते है.उनके अनुसार आगे बढते है, समाज में नारी का ओहदा सबसे ऊँचा मानते है. आज की नारी पुरुषप्रधान समाज में पुरुषों के कंधे  से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है.लेकिन इस भाग दौड में हम कहीं कुछ पीछे छोड़ते जा रहे है क्या हम कभी उस पर गौर करेंगे ?                                                           
           ऐसा क्या है जो प्रगति के मायने बदल रहा है?प्रगति से तो देश, समाज, की बदलती तस्वीर सामने आती है.आमतौर पर हम अपने आसपास के माहौल से प्रभावित होते है.और अपनी सफलता के लिए सभी के सहयोग को सर्वोपरि मानते है.आज के समय में प्रतियोगिता का समय है.जहाँ हर कोई दूसरे से आगे निकलने के लिए हर तरह के प्रयास करता है.इस माहौल में विज्ञापनों का बोलबाला है.जो हमें वर्तमान की एक नयी परिभाषा समझाते है, आज विज्ञापन उत्पाद के अनुसार नहीं होते, इनमे श्रेष्ठता की जंग  ही दिखाई  देती है जिसमे केवल आगे निकलने की धुन सवार है. .विज्ञापन में सादगी का स्वरुप कहीं खोता जा रहा है.विज्ञापन पश्चिमी सभ्यता के अनुसरण करनेवाले ज्यादा लगने लगे है.क्योंकि कहीं न कही इनमे औरत को एक अश्लीलता प्रदर्शन का जरिया बनाया जा रहा है. आज आप टेलिविज़न के किसी भी विज्ञापनों को देखें तो पता चलता है कि उनमें प्रचार से ज्यादा अश्लीलता ने अपना स्थान पा लिया है जिस पर किसी को भी एतराज़ नहीं न ही कोई शिकायत है.आप किसी भी उत्पाद का विज्ञापन लेले चाहे फिर वो नेपकिन का विज्ञापन हो,परफ्यूम का हो, साबुन का हो, क्रीम का,शैम्पू का,कोल्ड ड्रिंक का, सूटिंग-शर्टिंग का, कॉस्मेटिक्स के विज्ञापन हो सभी नारी की अस्मिता पर सवाल उठाते नज़र आ रहे है.क्या हम इस तरह की बेइजती इसी तरह  होते रहने देंगे या इस लिए कदम उठाएंगे क्योंकि इन विज्ञापनों में नारी के स्वरुप को देखकर कम से कम इस बात पर यकीं नहीं होता कि हमारे देश में नारी को देवी का दर्ज़ा प्राप्त है,  देवी को तो हम कम से कम इस तरह के स्वरुप में नहीं पूजते? क्या हम अपने मूल्यों और आदर्शों के साथ खिलवाड़ नहीं कर रहे? क्या हम अपनी बहिन,बेटियों को वो समाज, वो माहौल दे रहे है जो उन्हें मिलना चाहिए?दरअसल समाज में बढ़ रही अराजकता के पीछे भी कहीं न कहीं हमारी बदली सोच ही जिम्मेदार है.आज नारी को समाज में सम्मान तो मिल रहा है  पर कहीं न कहीं अभी भी पूर्ण सम्मान की इबारत लिखी जाना बाकी है,.क्या अगर विज्ञापनों में नारी का अश्लील स्वरुप नहीं होगा तो कंपनियों को उस की सही कीमत नहीं मिलेगी? मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ.अगर सही विचार और सही सोच के साथ सही मार्गदर्शन हो तो इस तरह के विज्ञापनों को बदलकर परम्परा और संस्कृति से जुड़े मूल्यों को ध्यान में रख कर विज्ञापन बन सकते है और कम्पनियाँ लाभ  प्राप्ति के सारे रिकॉर्ड तोड़ सकती  है तो क्यों नहीं इस और सार्थक प्रयास की शुरुआत हम करें और नारी की धूमिल होती तस्वीर में आशा और विश्वास के नए रंग भरें...............                                                                                                                    

Sunday, May 8, 2011

भूखी मरती माँ के लिए कैसा मदर्स डे!

                    विश्व में अनेक बहुमूल्य रत्न है.जिन्हें सभी लोग जानते है.जिनमें हीरा, पन्ना,मोती, जो हमारे जीवन में अपना एक स्थान बना चुके है.पर क्या हम जानते है कि एक रत्न ऐसा भी है जो अभी तक अस्तित्व बना पाने में सफल नहीं हुआ. आप सोच रहे होंगे ऐसा कौनसा रत्न है. तो में आप सभी को उस रत्न की चमक से रूबरू कराती हूँ. वो रत्न है हमारी जननी. जो आज तक अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के बाद भी अधूरा सा जीवन जीने को मजबूर है. एक माँ होकर अधूरा जीवन सुनने में अजीब लगता है, पर आपके सामने आज में वो बातें रखूगी जो आपको यह समझने को मजबूर कर देगी यह सच्चाई है. हम आज एक मशीनी जीवन जी रहे है जहाँ  हम अपनों को सुख सुविधाएँ तो देना चाहते है, पर केवल भौतिक रूप में क्योंकि आज हम सभी जीने की जद्दोजहद में रिश्तों और जिम्मेदारियों में सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे.हम अपनों के साथ समय बिताने में असमर्थ है.बच्चे, बूढ़े, जवान घर में रहने वाले हर सदस्य को यह अपेक्षा रहती है कि पूरा परिवार एक साथ मिलकर अपनी खुशियाँ और गम बाटें.आज समाज में बदलते परिवेश में माँ बाप की जिम्मेदारियां तो वही है जो पुराने समय से निर्धारित है. पर बच्चों की जिम्मेदारियों में कोई समानता नहीं है.वे अपने अनुसार जिम्मेदारियों को पूरा करते है या नहीं भी करते. कई बार माँ बाप अपनी जिम्मेदारी के लिए सब कुछ त्याग देते है.वही उनकी संतान अपनी आय के अनुसार निर्णय लेती है.आज अगर हम अपने आस पास नज़र डाले तो हमें पता चलता है कि जो माँ बाप अपनी संतान को चलना सिखाते है. वो ही संतान जरुरत पड़ने पर अपने माता पिता को दो कदम चलाने में सहयोग नहीं करती. आज उन्हें अपने माता पिता का सहयोगी बनना गवारा नहीं.आज बच्चे प्रक्टिकल लाइफ जीने में विश्वास करते है. 
                       माँ हमेशा अपने बच्चों की उन्नति की कामना करती है. पर जब बच्चे उन्नति के पथ पर आगे बढ़ जाते है. तो वही माँ उनकी शक्ल देखने के लिए तरस जाती है. माँ के त्याग और समर्पण का तो कोई अंत ही नहीं क्योंकि उसे तो एक पत्नी, बेटी, बहन  के रूप में इसकी मिसाल बनकर जीवन जीना है. माँ तो सदैव ममता, प्यार, विश्वास,अपनेपन,वात्सल्य की जीती जागती मूरत होती है. आज हम पूरी तरह पश्चिमी सभ्यता को अपना रहे है जिसने हमें  अपने प्राचीन संस्कारों को भूलने पर मजबूर कर दिया है.जबकि पश्चिमी सभ्यता के लोग भारतीय संस्कृति में लीन होना चाहते है.हमारे समाज में बड़े भाई को पिता के समतुल्य माना जाता है. भाभी को माँ के बराबर माना है.पर आये दिन माता पिता के अपमान से जुड़े नए नए प्रकरण दिखाई दे रहे है जिसमे बेटा विदेश में बस गया. माँ बाप उसके बिना असहाय सा जीवन जी रहे है. बेटे बहू ने माता-पिता की संपत्ति हथिया ली, माँ की मौत के बाद पिता को निराश्रित छोड़ दिया या पिता की मौत के बाद अपनी माँ को ओल्ड एज होम छोड़ आये ताकि अपनी जिम्मेदारी की पूर्ति का भ्रम अपने दिमाग में पाल सके, आज हमारे लिए हमारे पालनहारों का ये ही मोल है?माँ जिसने हमें इस संसार में आने का सौभाग्य दिया उसके प्रति अपनी कृतज्ञता दर्शाने के बहाने क्यों नहीं हम अपने माँ को वो खुशियाँ दे जिसकी वे हक़दार है. माँ से हम अपने स्टेटस के अनुसार रहने की अपेक्षा करते है. कभी यह क्यों नहीं सोचते कि उसने तो हमे जीने की हर स्वतंत्रता दी. तो आज हम उन्हें क्यों परतंत्र जीवन जीने को मजबूर करें? अगर दो या तीन बेटे है तो वे यह मांग रखते है कि माता पिता उन्हें उनकी सुविधा अनुरूप माँ एक बेटे के पास रहे पिता दूसरे के पास रहे, हम यह क्यों नहीं सोचते जब हम पांच भाई बहिन थे तब तो माँ-बाप ने हमे पालने के लिए कभी अलग अलग नहीं किया?हमारी ज़रूरतों को पूरा करने में कोई अंतर नहीं किया? तो हम माता-पिता को एक साथ रहने से वंचित क्यों कर रहे है. हमारे लिए माँ बाप के लाड़-प्यार और उपकार का मोल चुकाने के लिए क्या कोई और माध्यम नहीं है जो हमें मदर्स डे या फादर्स डे जैसे विदेशी चोचलों की जरुरत पड़ने लगी  है? क्यों नहीं हम अपने संस्कारों को अपनाकर उनके अनुसार उन्हें सम्मान दे. क्योंकि अगर हमारे दिल में माँ बाप के लिए सम्मान नहीं है तो यह मदर्स डे  केवल एक औपचारिकता मात्र ही नज़र आता है!

Wednesday, April 20, 2011

राजा-महाराजाओं सा व्यवहार करती लोकतान्त्रिक सरकारें....

जब भारतीय क्रिकेट टीम ने वर्ल्ड कप जीता तो केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों ने अपने खजाने खोल दिए और विश्वविजेता खिलाडियों पर  अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट कौंसिल(आईसीसी) की तरह धन वर्षा शुरू कर दी .सभी राज्य एक दूसरे से आगे निकालने की होड़ में लग गए.कौन किस से ज़्यादा इनाम देता है.                                                   
सरकार की दरियादिली पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती और न ही विजेताओं के सम्मान पर क्योंकि देश का नाम रोशन करने वालों को तो प्रोत्साहित किया ही जाना चाहिए.लेकिन सरकार ने अपनी इस दरियादिली के लिए पैसा जहाँ से निकाला उस पर मुझे घनघोर आपाती है और मुझे ही क्या देश के हर नागरिक को होनी चाहिए.दरअसल सरकारों ने शिक्षा पर खर्च होने वाले पैसे से क्रिकेटरों को मालामाल कर दिया. क्या हमारा देश पूर्ण साक्षर है? अगर कुछ साक्षर राज्यों के आधार पर भी कहें तो भी १०० फीसदी साक्षरता का लक्ष्य पाने में समय लगेगा. तो फिर इतनी आवश्यक और महत्वपूर्ण योजना के पैसों को खिलाडियों को इनाम के तौर पर देना कहाँ तक सही है?आज हम सभी चाहते है.कि शिक्षा की कमी सहित देश की तमाम वर्तमान समस्याओं को जल्द से जल्द हल किया जाए और आने वाले समय की आवश्यकताओं और समस्याओं के हल के लिए समय रहते देश को तैयार किया जाए.पर अगर इस तरह धन का अपव्यय होगा तो कहाँ तक वर्तमान की स्थिति सुधार पाएंगे,   कहाँ तक भविष्य के लिए तैयार होंगे.इसलिए कम से कम सरकारों को  इस तरह के इनामों की घोषणा  करने से पहले ये सोचने की ज़रूरत है कि वो इनका इन्तेजाम कहाँ से करेगी. क्यों नहीं हम अपनी चादर के अनुसार ही पैर पसारें.क्यों हम केवल भेड़ चाल में शामिल होकर अपनी ही पीठ थपथपाने लगते हैं!.एक राज्य सरकार अगर १ करोड का इनाम दे रही है.तो जरुरी नहीं कि हम उसकी नक़ल करे या उससे भी बढ़कर दिलेरी दिखाएँ.हम अपनी आर्थिक हालात के अनुसार उससे कम इनाम भी दे देंगे तो भी कोई बात नहीं क्योंकि इनाम तो इनाम है वह  १० रुपये भी हो सकता है और ५० हज़ार भी और कई करोड़ भी.लेकिन हम अपनी योजना और विकास की राशि महज एक खेल पर क्यों लुटाएं?अगर हैसियत है तो ही दे.दूसरे की उधारी पर इनाम सम्मान की जगह अपमान स्वरुप हो जाता है.देश की योजनाओ में वही पैसा लगाया जाता है जो हम सभी नागरिक आयकर या अन्य करों के रूप में सरकार को देते हैं. इस तरह के कार्य ने यह जाहिर कर दिया है. कि सरकार को नागरिकों की गाढे पसीने और मेहनत से कमाए गए पैसे से हुई आय का कितना मोल है?क्या सरकारों का यह रवैया हमें आयकर के भुगतान से बचने की ओर प्रेरित नहीं करता? अगर सारे नागरिक आयकर जैसे तमाम करों का भुगतान न करने का फैसला ले लेंगे तो हो गया देश का विकास और हमारा देश विकासशील तो दूर अविकसित ही रह जायेगा और पूर्ण विकसित देश बनाने कीई ख्वाहिश मात्र सपना बनकर ही  रह जायेगा.

Thursday, April 14, 2011

क्या किसानों और बच्चों की मौत पर विकास चाहते हैं हम


रोजगार के अवसरों में भी लगातार इजाफा हुआ है.सरकार लगातार अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत दे रही है.फिर भी देश में गरीबी और बेरोजगारी में कोई बदलाव क्यों नज़र नहीं आता.भारत जैसे विकासशील देश में हर साल २५ लाख शिशु अकाल मृत्यु की भेंट चढ जाते है.तक़रीबन २२ करोड़ लोग आज भी भूखे पेट सोते है. आज हम यह सोचने को मजबूर है.कि यह आंकड़े क्या वाकई हमारी प्रगति को दर्शाते है. भारत जैसे कृषि प्रधान देश में ६०% जनता कृषि को व्यवसाय के तौर पर अपनाये है.जो किसान सारे देश की भूख मिटते है.क्या उन्हें भर पेट खाना मिलता.शायद नहीं.                                                                      
 आज हम किस प्रगति को मापदंड मान रहे है.भुखमरी से पांच साल से कम आयु के पांच करोड़ बच्चे कुपोषण का शिकार है.केंद्र सरकार गरीबी दूर करने के लिए योजनाओं का अम्बार हर वर्ष लगाती है.पर फिर वही ढाक के तीन पात ही रह जाता है जहाँ एक ओर धनी देश १० से २० फीसदी आमदनी भोजन पर खर्च करते है.वही हमारे देश में गरीबी के कारण  ५५% हमारे देश में संसाधनों की कोई कमी नहीं है,,तकनीकी कौशल  का कोई अभाव नहीं कमाई का हिस्सा भोजन पर खर्च हो जाता है.अर्थव्यवस्था की चमक केवल मेट्रो सिटी में ही सिमट कर रह गयी है.जब हर बजट में देश की सभी आवश्यक जरूरतों पर खर्च करने के लिए निश्चित भाग तय होता है.परन्तु हम उस भाग को पूर्णतः उस काम में नहीं लगाते क्योंकि वो हिस्सा भ्रष्टाचार की बलि चढ जाता है.आज भ्रष्टाचार हमारे समाज को दीमक की तरह खोखला कर रहा है.जिसमे नेता मंत्री ओर नौकरशाह सभी लिप्त है सभी केवल अपनी स्वार्थ की रोटियां सेकने में लगे है.जिसकी वजह से किसानों ने आत्महत्या जैसा संगीन कदम उठाना शुरू  कर दिया है                                                     आज वो अपने खेत में अनाज उगाने के लिए सरकार की ओर मदद के लिए आशाभरी निगाहों से देखते है पर जब निराशा ही हाथ लगाती है तो उनके पास बैंक या साहूकार के पास जाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं मिलता.वे बैंक और साहूकार से क़र्ज़ लेकर अच्छी पैदावार की उम्मीद करते है.पर उम्मीद के अनुरूप उत्पादन न होने  पर उन्हें क़र्ज़ चुकाने की चिंता होने लगती है. क़र्ज़ न चुका पाने की सूरत में आसान तरीका आत्महत्या ही नज़र आता है.वैसे २०११-१२ के बजट में किसानों को रियायत देने की कोशिश है.इस रियायत से किसानों की मुश्किलें कम होगी यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा.पर हमें हमारे देश को समस्याओं का घर बनने से बचाने के लिए सार्थक प्रयास की दरकार है.भ्रष्टाचार विरोधी कानून बना देने से सरकार की जिम्मेदारी पूरी नहीं होती है.बल्कि उसे लागू करने में भी पूरी ईमानदारी से कदम उठाने की जरुरत है.
   आज समाज में अन्ना हजारे जैसे देशभक्तों के अनशन जैसे प्रयासों ने एक भ्रष्ट मंत्री को इस्तीफ़ा देने पर मजबूर कर दिया है.पर यह नाकाफी है. इस आन्दोलन को समर्थन देने से काम नहीं चलने वाला बल्कि उनके द्वारा तैयार कराये लोकपाल बिल के प्रारूप के निर्माण में आ रही मुश्किलों को दूर करने में एकजुट हो कर प्रयास होना चाहिए.वैसे अन्ना हजारे ने अपना अनशन समाप्त करते हुए सरकार को लोकपाल बिल १५ अगस्त तक संसद में पास करने का अल्टीमेटम दिया है अगर सरकार इस में कोई आनाकानी करती है.तो देशव्यापी अनशन की जगह देशव्यापी आंदोलन का इरादा जाहिर हुआ है.अब देखनेवाली बात यह है कि सरकार इसे लेकर कहाँ तक सार्थक कदम उठाकर देश में भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाकर देश में नयी उर्जा का संचार करती है. या एक बार फिर केवल चुनावी आश्वासनों की तरह यह बिल भी ठन्डे बस्ते में चला जायेगा पर इसकी जगह सरकारी तंत्र में भी आमूल परिवर्तन को नकारा नहीं जा सकता.तभी देश भ्रष्टाचार से पूर्ण मुक्ति पा सकेगा.


Friday, April 8, 2011

नहीं पढेगी बेटी, तो बर्बाद हो जायेगी नई पीढ़ी

         आज हमारे देश में सभी को मौलिक अधिकार प्राप्त है.जो हमें अनेक प्रकार की स्वतन्त्रता देते है.धार्मिक स्वतंत्रता,आर्थिक स्वतंत्रता,अपने विचार व्यक्त करने की आज़ादी,मत देने का अधिकार,आदि प्रमुख है.पर एक अधिकार ऐसा है जिसे पाने में हमें कई वर्ष लग गए.वो है सभी को शिक्षा का अधिकार,जिस बिल को सरकार ने कुछ समय पूर्व पारित किया है.परन्तु इस को सभी राज्यों में लागू करने में अनेक कठिनाइयों का सामना कर रहे है.केवल बिल पारित कर उसे राज्यों के ऊपर छोड़ने से सरकार की जिम्मेदारी पूरी हो सकती है.शायद नहीं क्योंकि राज्यों को आ रही कठिनाइयों के हल के लिए केंद्र सरकार का सहयोग आवश्यक है.आज अगर सभी सरकारें इसे पूर्ण रूप से लागू कर ले तो देश में साक्षरता के प्रतिशत में सुधार की उम्मीद कर सकते है.वैसे अब तक के आंकड़ों के अनुसार केरल राज्य देश में साक्षरता दर में सबसे आगे है.
                    आज हर राज्य अपनी इस दर के सुधार के लिए प्रयासरत है.पर प्रयास केवल कागज़ी रूप तक है. तो क्या केवल कागज़ी योजना बनाकर हम इस को हासिल कर सकते है? हमारे प्रयासों में कहाँ कमी रह जाती है. इस ओर भी ध्यान देने की जरुरत है. जिस से आगे के प्रयासों में किसी भी तरह ढील न बरती जाये और केवल बिल बनाकर पास कराकर उसे राज्यों को लागू करने का फरमान जारी करने करने से पहले वहां के ज़मीनी हालातों का जायज़ा लेना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है. प्रत्येक राज्य सरकार को इसे लागू करने के लिए उचित समय दिया जाये. और तब तक केंद्र सरकार का एक प्रतिनिधि इस पर नज़र बनाये रखे. समय समय पर वह इसकी जानकारी सम्बंधित विभाग को दे.इस तरह अगर सरकार योजना बनाये और लागू करे तो देश में क्रांति की नयी ज्योति जगे और कोई भी राज्य किसी भी शेत्र में पिछड़ेगा नहीं.यहाँ एक बात और भी जरुरी है.कि सरकार  योजनाओं को कानूनों को लागू करना केवल सरकार पर ही छोड़ना सही नहीं हमें भी एक सच्चे नागरिक की भूमिका अदा करनी चाहिए.क्योंकि "आज के बच्चे कल का भविष्य है "अतः उन्हें शिक्षा के अवसर अवश्य मिलने चाहिए.पर इन अवसरों में भेदभाव का फार्मूला न हो.जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तर्कसंगत है.आज हम अगर सभी राज्यों में लड़के लड़कियों के साक्षरता का प्रतिशत देखे तो  काफी चौकाने वाले आंकड़े सामने आएंगे.ज्यादातर राज्यों में लड़कियों की शिक्षा पर कोई  तवज्जों नहीं दी जाती है.आज भी हमारे समाज में लड़कों का पढ़ना जरुरी माना जाता है क्योंकि वो परिवार का नाम रोशन करेंगे   और लड़की अगर किसी तरह स्कूली शिक्षा प्राप्त कर ले,और आगे पढ़ना चाहे तो उसे यह कह कर रोक दिया जाता है कि तुम आगे पढकर क्या करोगी तुम्हें तो चूल्हा चौका संभालना है. वो गुर सीख लो. तो तुम्हारे काम आयेंगे.लड़का आगे पढ़ना चाहे तो उसकी हर इच्छा पूरी की जाती है. चाहे वो उचित हो या अनुचित क्योंकि वो कमाऊ सपूत बनेगा उसकी आमदनी से घर चलेगा.पर क्या अगर बेटी आगे पढकर जॉब करे तो क्या वो कमाऊ सुपुत्री नहीं बन सकती. पर यह परंपरावादी सोच को बदलना नहीं चाहिए और यह बदलाव तभी आएगा जब हमारे देश में लड़कियों को शिक्षित  होने के ज़्यादा अवसर मिलेंगे. तभी  तो शिक्षा का अधिकार बिल की सार्थकता पूर्ण होगी.  क्योंकि वर्तमान में कम शिक्षा के अवसर होते हुए लड़कियां पढ़ाई के शेत्र में लड़कों को मात दे रही है.आज आप लड़कियों को  पढ़ाई के साथ व्यापार, कला, खेल, पर्वतारोहण, अंतरिक्ष शेत्र में आगे बढ़ता देख रहे है.  उनकी उपलब्धियों को देख रहे है.फिर भी अपनी सोच में बदलाव को तैयार नहीं,आखिर क्यों?इस बात के साथ में एक और बात जोड़ना चाहती हूँ."हर पल जीने को संघर्ष करती बेटियां .......... बेटों की चाह में बिना जन्मे ही मर जाती है बेटियां"अगर आज शिक्षित माँ हो तो कन्या हत्या के मामलों में कमी आये.कुछ आंकड़ों के अनुसार २००५ में जनम के बाद १०८ कन्या शिशु की मौत हुई. जो २००९ में बढ़कर १८६ हो गयी.अगर ये ही स्थिति रही तो शायद अगले चार सालों में लड़के लड़कियों की जनसँख्या का अनुपात १०० लड़कों पर ० लड़कियां न हो जाये.अतः हमारी सरकारों की यह जिम्मेदारी बनती है.कि वो अपनी सभी कठिनाइयों से पार पाकर  इस बिल को लागू करें और देश की प्रगति में दोनों याने महिलाओं और पुरूषों को योगदान करने दे. और हमारे विकासशील देश को विकसित देशों की श्रेणी में शामिल होने में पूर्ण सहभागिता प्रदान करे...............       

Wednesday, April 6, 2011

देशी में है दम.क्यूँ करे विदेशी का गम..................

हमारे देश में खेलों का महत्व लगातार बढ़ रहा है.आज हम हर खेल में अपनी सर्वोच्चता साबित कर रहे है.आज हम क्रिकेट, फुटबाल, टेनिस,शतरंज में अपनी क़ाबलियत साबित कर चुके है.परन्तु केवल खिलाडी के बल पर यह मुमकिन नहीं है.अतः खिलाडी के साथ उसके कोच की भी भूमिका जरुरी है.पर क्या हम खेलों में इस भूमिका को उतना महत्व देते है जितना देना चाहिए?आज हमारा देश खेलों में सरताज की तरह है.इस बारे में अगर विचार किया जाये तो हमारी सरकार सदैव विदेशी कोच की पैरवी करती आयी है.तो क्या हम यह मान ले की किसी भी खेल के पूर्व खिलाडी अच्छे कोच साबित नहीं होते.इस बारे में एक ध्यान देने योग्य बात यह है कि बेडमिन्टन सनसनी  सायना नेहवाल ने इन दिनों पूरे विश्व में अपना डंका बजा रखा है.उसके कोच कोई और नहीं पूर्व  भारतीय खिलाडी पुलेला गोपीचंद है.कुछ समय पहले भारतीय क्रिकेट टीम के फिल्डिंग कोच पूर्व खिलाडी रोबिन सिंह थे.मैंने यह दो उदाहरण क्यूँ दिए यह विचार मान में आना वाजिब है.क्यूंकि वर्तमान में सभी  खेलों की स्थिति को देखते हुए हर खेल संघ अभी भी विदेशी कोच को तवज्जो दे रहा है.जबकि अगर हम अपने ही पूर्व खिलाडियों को मौका दे तो वो भी किसी विदेशी से कम नहीं है. वैसे हमारे विदेशी कोच के अनुभव अच्छे भी है और बुरे भी.अगर हम क्रिकेट के विषय में देखें तो कुछ समय पहले ग्रेग चेपल एक ऑस्ट्रलियाई खिलाडी को भारतीय टीम का कोच बनाया पर वे विवादों के कोच बनकर रह गए.इसके बाद एक न्यूज़ीलैंड के जॉन राईट को भी मौका मिला.पर वे भी टीम को कोई सार्थक अंजाम न दिला पाए.अब हमारी टीम ने २ अप्रैल को क्रिकेट का वर्ल्डकप जीता है.हालाकि यह वर्ल्डकप हमें एक और विदेशी कोच साउथ अफ्रीकन खिलाडी गेरी क्रिस्तान की कोचिंग से मिला है. अब गेरी का कार्यकाल पूरा हो गया है.वैसे भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड गेरी से अपना कांट्रैक्ट बढ़ाने पर विचार करने का अनुरोध कर रहा है पर गुरु गेरी इसे आगे बढ़ाने को तैयार नहीं.उनका कार्यकाल अब तक के विदेशी कोचों में सर्वश्रेष्ठ कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी क्यूंकि उनकी छत्रछाया में टीम ने अनेक उपलब्धियां हासिल की है.एकदिवसीय रंकिंग में सर्वोच्च स्थान ,टेस्ट रंकिंग में भी श्रेष्ठ स्थान पाया है.ऑस्ट्रेलिया,साउथ अफ्रीका,को उनके ही घर में मात देना कोई आसान कम नहीं था. यह गेरी के ही मार्गदर्शन का नतीजा है.और सबसे जरुरी २८साल के इंतज़ार के बाद विश्वविजेता होने का सम्मान भी उनके ही अथक प्रयासों, दूरदर्शी सोच, और खिलाडियों में जीतने की लालसा जगाने का नतीजा है. उन्होंने हर किसीको एकजुट होकर अपनी क़ाबलियत दर्शाने का मौका दिया. अब एक बार फिर हम विदेशी कोच खोजने में जुट गए है. जिनमे अभी टॉम मूडी, जस्टिन लंगर,एंडी फ्लोवेर,शेन वार्ने,एरिक सिमंस, के नाम कोच के लिए सुर्ख़ियों में है.अरे एक नाम तो मैं भूल गयी भारतीय फिल्डिंग  कोच रहे रोबिन सिंह.वैसे विश्वविजेता बनी टीम के लिए अब कौन सा कोच परफेक्ट होगा.यह कह पाना कठिन है. पर यह सोचकर निर्णय न करे कि विदेशी कोच ने वर्ल्डकप दिलाया इस लिए विदेशी कोच ही उचित होगा.पर हमें एक बार अपने देश के पूर्व खिलाडियों की   योग्यता का आंकलन अवश्य करना चाहिए.वैसे पूर्व में मदन लाल भी कोच की भूमिका निभा चुके है. क्यूँ नहीं १९८३ की वर्ल्डकप विजेता टीम के खिलाडियों में से किसको मौका दे.क्या हम अपने खिलाडियों से ज़्यादा पूर्व श्रीलंकन कोच डेव वाटमोर को काबिल मान रहे है.क्या उस समय वर्ल्डकप के हीरो रहे मोहिंदर अमरनाथ या रोज़र बिन्नी को मौका क्यूँ न दे.वैसे बिन्नी उस वर्ल्डकप के बाद से क्रिकेट को अलविदा कहकर फिर कभी कहीं भी नज़र नहीं आये. उस समय के कुछ दिग्गज आज टीवी चेनलों पर क्रिकेट विशेषज्ञ की भूमिका निभते नज़र आ रहे है. पर अब भी कुछ ऐसे खिलाडी है जिन्होंने कुछ समय अच्छा प्रदर्शन किया. फिर पता नहीं कहाँ खो गए समय की गर्त में.उन्हें लोगों ने भी भुला दिया क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं की हम उन्हें उचित सम्मान देकर फिर से उनके प्रिय खेल से जोड़े.उन्हें राज्यों,जिलों तहसीलों संभागों  क्रिकेट संघ में पद देकर  और गांव में और दूर दराज़ में क्रिकेट सिखाने की जिम्मेदारी दे. जिससे उनके मान में नयी आशा का संचार हो. वे अपनी क़ाबलियत साबित करते हुए राष्ट्रीय टीम को प्रशिक्षित करने को भी गौरव हासिल कर पाए.और हमें विदेशी कोचों द्वारा डाले गए आर्थिक भार से मुक्ति मिल सके और हम विश्व क्रिकेट में नयी इबारत लिखकर नए आयाम हासिल करने की ओर सदैव अग्रसर रहे.      

Tuesday, March 29, 2011

दोस्ती का क्रिकेट या क्रिकेट से दोस्ती

आज के युग में खेलों का महत्व लगातार बढ़ रहा हे.फिर वो चाहे दोस्त बनाने के लिए हो या रिश्तों की नई परिभाषा बनाने में,जैसा की वर्तमान में हो रहा है. आज हमारे समाज में खेलों को नया स्वरुप मिला है.पहले खेलों को योग्यता का माप नहीं माना जाता था.आज हम खेलों और खिलाडियों को भगवान का दर्ज़ा देते है.आज सभी खेलों को महत्व दिया जाता है. हमारे देश में तो अन्य खेलों की तुलना में क्रिकेट की तूती बोलती है.क्रिकेट को सभी धर्म,जाति,संप्रदाय से ऊपर सम्मान मिलता है.क्रिकेट खिलाडियों को भगवान जैसा दर्ज़ा प्राप्त है.उनकी एक झलक पाने को लोग उसी तरह उमडते है जैसे शिरडी या वैष्णों देवी के मंदिरों में भीड़ का जमावड़ा होता है.आज हम इन खेलों के माध्यम से सारे विश्व को एकजुट करने के प्रयास में लगे है. आज सभी देश आपसी संबंधों को प्रगाढ़ बनाने  में खेल प्रतियोगिताओं के आयोजन में खासी दिलचस्पी लेने लगे है. जिसका जीता जगता उदाहरण अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं का मिलजुल कर आयोजन है.वैसे भी इस बार क्रिकेट महाकुम्भ का आयोजन भी तीन सार्क देश कर रहे है.जिनमे भारत श्रीलंका बांग्लादेश शामिल है.पहले इन देशों  की सूची में पाकिस्तान भी शुमार था.पर क्या आप जानते है कि पाकिस्तान की जगह बांग्लादेश क्यूँ शामिल हुआ.इस का कारण पाकिस्तान की आतंकवाद समर्थित गतिविधियां है जो पूर्ण रूप से  भारतविरोधी है. कुछ समय पहले हमारे देश में अचानक आतंकी हमलों का ऐसा सैलाब आया जिसने हमारे देश को झकझोर दिया. हम ये समझ ही नहीं पा रहे थे,कि कौन हमारे देश कि शांति और सौहार्द का दुश्मन बन गया है.फिर धीरे धीरे हमने अपने  पडोसी देशों को भी इससे अवगत कराया.पर तब हम इस सच्चाई से अनभिज्ञ थे कि हमारा ही एक पडोसी मित्र  देश इस साजिश का सर्वेसर्वा है इन आतंकी हमलों में हमारे लोकतन्त्र के मंदिर संसद भवन पर हुआ आत्मघाती हमला जिसमे अनेक जवानों ने अपने प्राणों की आहुति दे के अनेक राजनेताओं, केंद्रीय मंत्रियों के प्राणों की रक्षा की.इस घटना ने  पूरे देश की नीव हिला दी.केवल ये ही एक मात्र हमला नहीं हुआ बल्कि मुंबई में समुद्री रास्ते से हुआ हमला. जिसमे मुंबई की महत्वपूर्ण जगहों को निशाना बनाया.उनमे प्रमुख है ताज होटल, छत्रपति शिवाजी टर्मिनल,ट्राइडेंट होटल.जिसमे अनेक मुंबई पुलिस के जवान शहीद हो गए जिनमे हेमंत करकरे,विजय सालस्कर प्रमुख थे.इस तरह के हमलों ने देश की आर्थिक स्थिति को भी कमजोर कर दिया.मुंबई पुलिस ने अपने जवानों के प्राण खोकर एक मात्र ज़िंदा  आतंकी आमिर अजमल कसाब को गिरफ्तार किया.उस आतंकी ने अपने बयान में कबूला की उसे आतंकी हमले की सारी ट्रेनिंग पाकिस्तान में मिली ये जानकारी पते ही भारतीय सरकार ने पाकिस्तान की सरकार जो सारी जानकारी दे  के, इस हमले के मास्टर माइंड को भारत को सौपने की बात कही तब पाकिस्तान ने अजमल कसाब के पाकिस्तानी होने की बात को सिरे से नाकारा. और उस हमले के मास्टर माइंड के भी पाकिस्तान में होने से इनकार किया और आज तक इस मामले में कथनी और करनी में अंतर के आदर्श पर खरा उतर रहा है.जबकि आज अलकायदा जैसे संगठन का शिकार वो खुद भी है.पर जहाँ तक हमारे देश को इस बारे में मदद का प्रशन है आज भी वही पुराना दोस्ती का राग अलाप रहा है.आज पाकिस्तान में दुनिया भर के कोई भी देश किसी भी खेल प्रतियोगिताएं में शामिल होने से इंकार कर रहे है. इसका कारण वहां पर हुई एक क्रिकेट प्रतियोगिता श्रीलंका क्रिकेट टीम पर हुआ  आतंकी हमला हे,जिसमे इस टीम के कई खिलाडी घायल हुए थे.जो काफी समय बाद मैदान पर खेलने की तैयारी कर पाए है.आज अगर पाक में कोई भी देश जाना नहीं चाहता, तो उसके पीछे आतंकवाद को लेकर पाक का ढुलमुल रवैया जिम्मेदार है आज जब हम भारत में चल रहे क्रिकेट मह्कुम्भ में सेमीफ़ाइनल को दौर में है.तब जहाँ एक सेमीफाइनल श्रीलंका में होना है जिसे लेकर कोई खास उत्साह नज़र नहीं आता.वही दूसरी ओर भारत और पाकिस्तान के बीच मोहाली में होने वाली भिडंत पर सारी दुनिया की निगाह है.वही एक ओर सार्थक कोशिश के प्रयास भी शुरू हो गए है .इस दिशा में पहला कदम हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी ने उठाया है.उन्होंने पाकिस्तानी राष्ट्रपति ज़रदारी ,प्रधानमंत्री गिलानी को मैच देखने के लिए मोहाली आने का निमंत्रण भेजा है जिसे स्वीकार करते हुए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री गिलानी भारत आकार मैच देखेंगे और भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा दिए रात्रि भोज में भी शामिल होंगे.पर इस मित्रवत आमंत्रण और मुलाक़ात से क्या दोनों देशों के संबंधों में किसी नए अध्याय की शुरुआत के संकेत है.या यह मुलकात भी पिछली शीर्ष मुलाकातों की श्रंखला का एक हिस्सा बनकर रह जायेगी. क्या हम सभी भारतीय नागरिक पाकी प्रधानमंत्री से नए आयाम की उम्मीद कर सकते है.या उस हिंदी  फ़िल्मी गाने की तरह होगा जिसकी पंक्तियाँ है
 कसमे वादे प्यार वफ़ा सब
बाते है बातों का क्या,
कोई किसका नहीं यह
 झूटे नाते है नातों का क्या......  
पर आज हम दोनों देशों के नागरिक इश्वर से यह दुआ मांगते है.की यह मित्रवत मुलाक़ात अब तक के सारे गिले शिक्वे दूर कर देगी और एक बार फिर खेल के माध्यम से दोस्ती के रिश्ते और प्रगाढ़ होंगे और क्रिकेट दोस्ती के खेल के रूप में फलेग फूलेगा और नए आयामों की ऐसी श्रंखला बनाएगा जी सदियों तक सभी को प्रेरित करती रहेगी................

Monday, March 7, 2011

महिलाओं का दर्द महिला की ही जुबानी

आज के पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को अपना वर्चस्व बनने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है.आज हम समानता की बात तो करते है.पर समानता है कहाँ? न देश में,न परिवार में और न समाज में.महिलाओं को आगे बढ़ने के अवसरों में कमी दिखाई देती है.हर तरफ एक असमानता की होड लगी है.आज लड़की के जन्म पर मातम का माहौल हो जाता है वही लड़के के जन्म पर खुशी का ठिकाना नहीं रहता.गांव में तो लड़की को पढ़ने के अवसर भी नहीं दिए जाते हमेशा कहा जाता है तू पढकर क्या करेगी. बेटा पढ़ लिखकर जिम्मेदारी संभालेगा  तुझे तो घर संभालना है इस लिए घर के काम सीख जो तेरे काम आयेंगे पर कोई ये क्यूँ नहीं सोचता की एक माँ का शिक्षित होना भी तो जरुरी है.दरअसल माँ शिक्षित होगी तो परिवार,फिर समाज और देश शिक्षित होगा.आज हम महिला सशक्तिकरण की बात करते है. पर क्या हम सच में महिलाओं को आत्मनिर्भर देखना चाहते है? शायद नहीं तभी तो हम आज  महिलाओं की प्रगति में रोडे अटकाते है. आज हम महिलाओं को शिखर पर पहुँचता देखकर खुश नहीं होते.कहीं न कहीं हमारा पुरुष अहम सामने आ ही जाता है.हम महिला दिवस मनाने की औपचारिकता भी हर साल पूरी करते है. पर क्या उस आयोजन में कुछ सार्थक कदम उठाते है जो वाकई महिलाओं के लिए नए अवसरों का आगाज़ हो?छोटे बड़े  शहरों  में आज लड़की का जन्म एक अभिशाप के तौर पर देखा जाता है.उसे जन्म से पहले या जन्म के बाद मार डालते है परिवार इसी डर में जीता है कि बड़ी होने पर शिक्षा दिलाना पड़ेगा ,शादी होने पर दहेज देना पड़ेगा और  इन सब से छुटकारा पाने के लिए वो लोग लड़की को खत्म करना ही आसान समझते है. ८ मार्च को हम महिला दिवस मनाते है.जिसके तहत बहुत सारे देशों में  महिलाओं के सम्मान में अवकाश तक घोषित किया जाता है.भारत में भी अनेक आयोजन होते है.पर क्या यह आयोजन काफी है भारत जैसे देश की महिलाओं की दशा सुधारने के लिए जहाँ गांव में महिलाएं अशिक्षित और दीन-हीन स्थिति में रहने को मजबूर है.वे अपने अधिकारों और कर्तव्यों से भी अनजान है.वैसे शहरों में स्थिति कुछ ठीक है. शहरों में महिलाएं गांव के अनुपात में ज़्यादा शिक्षित है. पर गांव और शहरों में बलात्कार के दानव ने महिलाओं का जीना दूभर कर दिया है.आज महिलाएं अपने को कहीं भी सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रही है.उन्हें हर वक्त अनहोनी का डर बना रहता है. आज महिलाओं को अलग कतार की दरकार नहीं. अब उन्हें किसी सहारे की जरुरत नहीं. महिलाएं अपनी क़ाबलियत साबित करने में लगी है.आज महिलाएं शून्य से शिखर तक पहुंचना चाहती है.आज महिलाओं ने हर छोर को छूने की कोशिश की और सफल भी हो रही है.जिनमे खेल, नृत्य, राजनीति, पर्वतारोहण,न्यायालय सब कुछ शामिल हैं.कुदरती तौर पर महिलाएं मल्टी टास्किंग में माहिर है.महिला आज माँ,पत्नी, बेटी, बहु, जिठानी,भाभी जैसे रिश्तों की मान मर्यादा सँभालने के बावजूद आर्थिक रूप से कमजोर रहती है.अततः उनका आत्मनिर्भर बनना देश ही नहीं दुनिया की जरुरत है.जब लड़की शिक्षित होगी तभी तो वो अपने अधिकारों को लेकर सजग होगी. पिछले साल देश को पहली महिला राष्ट्रपति,पहली महिला सभापति मिलने का गर्व हुआ.महिलाओं को अपनी कल्पनाओं को पंख लगाने में हम भी सहयोगी बने.लेकिन महिलाएं तेजी से ग्लैमर की चकाचौंध से प्रभावित हो रही है.ये गलत है क्योंकि एक ऑब्जेक्ट बनने की चाह  उन्हें इज्ज़त नहीं दिला सकती. महिला दिवस मनाते हुए हमें  कुछ सार्थक कदम उठाने होंगे.महिला सशक्तिकरण को पूर्णत अपनाना होगा और महिलाओं को उनका असली मुकाम दिलाना होगा. एक नारी होने के नाते हमें भी नारी जाति को शिक्षित करने और सशक्त बनाने में हर संभव सहयोग का प्रण करना होगा और उस प्रण को निभाना होगा.तभी हम महिला दिवस पर अपने पूर्ण आत्मनिर्भरता और ससम्मान जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे.

सुरंजनी पर आपकी राय