Tuesday, December 14, 2010

संसद या असंसदीय कारनामों का अड्डा...!

जनता का संसद में प्रतिनिधित्व करने वाले सांसद समय के साथ बदलते जा रहे हैं.वे जनता के तो प्रतिनिधि पहले ही नही रह गए थे अब सरकार,संसद और देश के प्रति जवाबदेही भी खोते जा रहे हैं.साल-दर-साल या यों कहे की सत्र-दर-सत्र संसद का महत्त्व घटता जा रहा है.अब संसद काम के बजाए हल्ले-गुल्ले और हुडदंग का माध्यम बनकर रह गयी है.यहाँ यह याद दिलाना जरुरी है कि हमारे देश में प्रजातान्त्रिक शासन  प्रणाली  से देश चलता है. जहाँ जनता द्वारा सरकार का चयन होता है. जिसमे मतदान की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण योगदान होता है. जनता द्वारा दिए गए मतों की गडना के बाद जिस दल को सर्वाधिक मत मिलते है. .उस दल के नेता को प्रधानमंत्री चुना जाता है. इसके साथ राष्ट्रपति से मुलाक़ात कर सरकार बनाने का दावा पेश करते  है. फिर राष्ट्रपति उन्हें पद और गोपनीयता की शपथ दिलाते है. यह प्रणाली दुनिया भर में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है पर अब स्थितियां बदलती नज़र आ रही हैं.आज से कुछ वर्ष पूर्व यह चुनावी प्रक्रिया सस्ती थी. .पर आज इसे   सबसे महंगी प्रक्रिया मान सकते है. आज के सांसद  विलासितापूर्ण जीवनशैली के आदी हो गए है उनका जनता की अपेक्षाओं से ज्यादा अपनी जरूरतें की ओर ध्यान रहता है . कुछ सांसद ही अपने निर्वाचन क्षेत्रों की समस्याओं को संसद में रखते है बाकियों को केवल अपनी स्वार्थ पूर्ति की ही चिंता रहती है. वे  जनता को सदैव आश्वासन का लड्डू  पकड़ा कर अपनी जिम्मेदारी पूर्ण मान लेते है. वे ना नियमित तौर पर अपने निर्वाचन स्थलों का दौरा करते है और  ना ही सांसद निधि का उपयोग अपने क्षेत्र के विकास के लिए करते है. वे सांसद निधि से  अपने परिवार का विकास अवश्य  कर लेते है.इसीतरह संसद में कोई भी प्रस्ताव आने पर उसे पारित होने में कितना पैसा और वक्त जाया हो रहा है इस पर भी हमारे सांसद विचार नहीं कर रहे. बीते कुछ वर्षों में तो यह संसद की परंपरा बन गयी हैइसलिए संसद का खर्च तो हर साल बढ़ता जा रहा है परन्तु कामकाज के नाम पर असंसदीय भाषा,तोड़-फोड, छीना-छपटी और वक्त की बर्बादी बढ़ती जा रही है.
संसद के आधिकारिक तथ्यों के मुताबिक संसद की प्रति मिनट की कार्यवाही पर आने वाला खर्च अब बढकर 34 हजार 888 रुपए तक पहुँच गया है। इस लिहाज से संसद के चालू शीतकालीन सत्र की कार्यवाही न चलने के कारण अब तक देश को डेढ सौ करोड से अधिक का नुकसान हुआ है। सरकारी आकंडों के मुताबिक, 1990 के दशक में संसद सत्र के दौरान खर्च प्रति मिनट 1,642 रूपए था। वर्ष 2009-11 के बजट अनुमान इस खर्च में करीब दस फीसदी की कटौती की उम्मीद जताई थी पर बजट सत्र के दौरान दैनिक भत्ता एक हजार रूपए से बढाकर दो हजार रूपए कर दिया गया। इसलिए, यह खर्च लगभग दो गुना होने की उम्मीद है।बताया जाता है कि 1951 में संसद की कार्यवाही चलने का प्रति मिनट खर्च सिर्फ 100 रूपए था। वर्ष 1966 तक यह खर्च बढकर 300 रूपए प्रति मिनट पहुंच गया। सन् 1990 के बाद खर्च में एकदम तेजी आई है क्योंकि, वर्ष 2000 में सांसदों को मिलने वाला दैनिक भत्ता बढाकर 500 रूपए प्रति दिन हो गया। इसके बाद संसद में प्रति मिनट खर्च करीब 18 हजार रूपए प्रति मिनट पहुंच गया। इसके बाद 2006 में सांसदों के वेतन में वृध्दि के साथ दैनिक भत्ते में भी बढोतरी हुई और खर्च 24 हजार रूपए हो गया।तब से यह खर्च निरंतर बढता ही जा रहा है.इस खर्च के साथ-साथ वाक-आउट करने,आसंदी पर हमला करने और काम के नाम पर हंगामा करने की प्रवृत्ति भी उतनी ही तेजी से बढ़ रही है.ऐसा न हो कि संसद की बिगड़ती छवि देश को कोई और शासन प्रणाली अपनाने पर मजबूर कर दे .वैसे भी हम इमरजेंसी के दौरान ऐसे ही कुछ प्रयासों के गवाह बन चुके हैं.बस अब पुनरावृत्ति का इंतज़ार है....पर काश ये स्थित न बने !  

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